इक्कीसवां अध्याय
अन्धकारके पुत्र
एक बार नहीं बल्कि बार-नार हम यह देख चुके हैं कि यह संभव ही नहीं है कि अंगिरसों, इन्द्र और सरमाकी कहानीमें हम पणियोंकी गुफासे उषा, सूर्य व गौओंकी विजय करनेका यह अर्थ लगावें कि यह आर्य आक्रांताओं तथा गुहानिवासी द्रविड़ोंके बीच होनवाले राजनैतिक व सैनिक संधर्षका वर्णन है । यह तो वह संघर्ष है जो प्रकाशके अन्वेष्टाओं और अंधकारकी शक्तियोंके बीच होता है; गौएँ हैं सूर्य तथा उषाकी ज्योतियाँ, वे भौतिक गायें नहीं हो सकतीं; गौओंका विशाल भयरहित खेत जिसे इन्द्रने आर्योंके लिए जीता 'स्व:' का विशाल लोक है, सौर प्रकाशका लोक है, द्यौका त्रिगुण प्रकाशमय प्रदेश है । इसलिये इसके अनुरूप ही पणियोंको इस रूपमें लेना चाहिये कि वे अन्धकार-गुहाकी शक्तियाँ हैं । यह बिलकुल सच है कि पणि 'दस्यु' या 'दास' हैं; इस नामसे उनका वर्णन सतत रूपसे देखनेमें आता है, उनके लिये यह वर्णन मिलता है कि वे आर्य-वर्णके प्रतिकूल दास-वर्ण हैं, और रंगवार्चा 'वर्ण' शब्द ब्राह्मणग्रंथोंमें तथा पीछेके लेखोंमें जाति या श्रेणीके लिये प्रयुक्त हुआ है, यद्यपि इससे परिणाम नहीं निकलता कि ऋग्वेदमें इसका यह अर्थ है । दस्यु हैं' पवित्र वाणीसे घृणा करनेवाले; ये वे हैं जो हवि या सोमरसको देवोंके लिये अर्पित नहीं करते, जो गौओं व घोड़ोंकी दौलत तथा अन्य खजाने अपने ही लिये रख लेते हैं और उन चीजोंको द्रष्टाओं (ऋषियों ) के लिये नहीं देते; ये वे हैं जो यज्ञ नहीं करते । यदि .हम चाहें तो यह भी कल्पना कर सकते हैं कि भारतमें दो एसे विभिन्न संप्रदायोंके बीच एक संघर्ष हुआ करता था और इन संप्रदायोंके मानवीय प्रतिनिधियोंके बीच होनेवाले इस भौतिक संधर्षको देखकर उससे ही ऋषियोंने अपने प्रतीकों को लिया तथा उन्हें आध्यात्मिक संघर्षमें प्रयुक्त कर दिया, वैसे ही जैसे उन्होंने अपने भौतिक जीवनके अन्य अंग-उपांगोको आध्यात्मिक यज्ञ, आध्या-त्मिक दौलत और आध्यात्मिक युद्ध व यात्राके लिये प्रकीकके रूपमें प्रयुक्त किया । यह कल्पना ठीक हो या न हो, इतना तो पूर्णतया निश्चित है कि कम-से-कम ऋग्वेदमें जिस युद्ध और विजयका वर्णन हुआ है वह कोई भौतिक युद्ध और लूटमार नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष और आध्यात्मिक विजय है । २९४ यदि हम इक्के-दुक्के संदर्भोंको लेकर उन्हें कोई-सा एक विशेष अर्थ दे डालें जो केवल उसी जगह ठीक लग सके जब कि हम उन बहुतसे अन्य संदर्भोंकी उपेक्षा कर देते हों जिनमें वह अर्थ स्पष्ट ही अनुपपन्न ठहरता है तो अर्थ करनेकी यह प्रणाली या तो विचारतुलापर ठीक न उतरनेवाली होगी या एक कपटपूर्ण प्रणाली होगी । हमें वेदके उन सभी उल्लेखोंको इकट्ठे लेना चाहिये जिनमें पणियोका, उनकी दौलतका, उनके विशेष गुणोंका और उन पणियोंपर प्राप्तकी गयी देवों, द्रष्टाओं तथा आर्योंकी विजयका वर्णन है और इस प्रकार उन सभी संदर्भोंको इकट्ठा लेकर देखनेसे जो परिणाम निकले उसे सर्वत्र एकसमान स्वीकार करना चाहिये । जब हम इस प्रणालीका अनुसारण करते हैं तो हम देखते हैं कि इन संदर्भोंमेंसे कई संदर्भ ऐसे हैं जिनमें पणियोंके संबन्ध में यह विचार कि ये मानवप्राणी हैं पूर्णतया असम्भव लगता है और उन सन्दर्भोसे यह प्रतीत होता है कि पणि या तो भौतिक अन्धकारकी या आध्यात्मिक अन्धकारकी शक्तियाँ हैं; दूसरे कुछ सन्दर्भ ऐसे हैं जिनमें पणि भौतिक अन्धकारकी शक्तियाँ सर्वथा नहीं हो सकते; या तो वे देवान्वेषकों और यज्ञकर्ताओंके मानवीय शत्रु हो सकते हैं या आध्यात्मिक प्रकाशके शत्रु; फिर अन्य कुछ संदर्भ हमें ऐसे मिलते हैं जिनमें वे न तो मानवीय शत्रु हो सकते हैं न भौतिक प्रफाशके शत्रु, बल्कि निश्चित तौर पर वे आध्यात्मिक प्रकाश, दिव्य सत्य और दिव्य विचारके शत्रु हैं । इन तथ्योंसे केवल एक ही परिणाम निकल सकता है कि पणि वेदमें सदा आध्यात्मिक प्रकाशके और केवल आध्यात्मिक प्रकाशके शत्रु हैं--
इन दस्युओंका सामान्य स्वरूप बतलानेवाले मूलसूत्रके तौरपर हम ऋक् 5.14.4 को ले सकते हैं, ''अग्नि पैदा होकर चमका, ज्योतिसे दस्युओंका, अन्धकारका हनन करता हुआ; उसने गौओंको, जलोंको, स्वःको पा लिया ।''
अग्निर्जातो अरोचत, ध्नन् दस्यूञ्ज्योतिषा तम: । अविन्दद् गा अप: स्व: ।। ( 5.14.4 )
दस्युओंके दो बड़े विभाग हैं, एक तो 'पणि' जो गौओं तथा जलों दोनोंको अवरुद्ध करते हैं पर मुख्यतः जिनका संबंध गौओंके रोधनसे है, दूसरे, 'वृत्र' जो जलोंको और प्रकाशको अवरुद्ध करते हैं पर मुख्य रूपसे जिनका संबंध जलोंके रोधनसे है; सभी दस्यु निरपवाद रूपसे 'स्वः' को आरोहण करनेके मार्गमें आकर खड़े हो जाते हैं और वे आर्य द्रष्टाओं द्वारा की जानेवाली ऐश्वर्यकी प्राप्तिका विरोध करते हैं । प्रकशके रोधनसे अभिप्राय है उन द्वारा 'स्व:' के दर्शन, स्वदृश्, और सूर्यके दर्शनका, ज्ञानके उच्च दर्शन, उपमा २९५ केतु: ( 5.34.9 तथा 7.30.3) का विरोध; जलोंके रोधनसे अभिप्राय है उन द्वारा 'स्व:' की विपुल गति 'स्वर्वती: अप:' का सत्य की गति या प्रवाहों, ऋतस्य प्रेषा, ॠतस्य धारा: का विरोध; ऐश्वर्य-प्राप्तिसे विरोधका अभिप्राय है 'स्वः'के विपुल सारपदार्थ वसु, धन, वाज, हिरष्यका उन द्वारा रोधन, उस महान् संपत्तिका रोधन जो संपत्ति सूर्यमें और जलोंमें निहित है, (अप्सु सूर्ये महद् धनम् ) । तो भी क्योंकि सारी लड़ाई प्रकाश और अंधकारके बीच, सत्य और अनृतके बीच, दिव्य माया और अदिव्य मायाके बीच है, इसलिये सभी दस्यु यहाँ एकसमान अंधकारसे अभिन्नरूप मान लिये गये हैं; और अग्निके पैदा होने और चमकने लगनेपर ही ज्योति उत्पन्न होती है जिसके द्वारा वह ( अग्नि ) दस्युओंका और अंधकारका हनन करता है । ऐतिहासिक व्याख्यासे यहाँ बिल्कुल भी काम नहीं चलेगा, यद्यपि प्रकृतिवादी व्याख्याको रास्ता मिल सकता है यदि हम इस संदर्भको अन्य वर्णनसे जुदा रूपमें ही देखें और यह मान लें कि यज्ञिय अग्निको प्रज्वलित करना दैनिक सूर्योदयका कारण होता है; पर हमें वेदके तुलनात्मक अध्ययनसे किसी निर्णयपर पहुँचना है न कि जुदा-जुदा संदर्भोके बल पर ।
आर्यों और पणियों या दस्युओंके बीचका विरोध पांचवें मण्डलके एक अन्य सूक्त ( 5.34 ) में स्पष्ट हो गया है, और 3 .34 में हमें आर्यवर्ण यह प्रयोग मिलता है । यह हमें अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि 'दस्यु' अंधकारसे अभिन्न-रूप बताये गये हैं, इसलिये आर्योका संबंध प्रकाशसे होना चाहिये, और वस्तुत: ही हम पाते हैं कि स्पष्टतया दास-अंधकारकी कल्पनाके मुकाबलेमें सूर्यके प्रकाशको वेदमें आर्य-प्रकाश कहा गया है । वसिष्ठ भी तीन आर्यजनोंका वर्णन करता है जो ''ज्योतिरग्राः'' अर्थात् प्रकाशको अपना नेता बनानेवाले हैं, जो प्रकाशको अपने आगे-आगे रखते हैं ( 7. 33. 7 ) । आर्य-दस्यु प्रश्नपर यथोचित रूपसे तभी विचार हो सकता है यदि एक व्यापक विवाद चलाया जाय जिसमें सभी प्रसंगप्राप्त संदर्भोंकी परीक्षाकी जाय और जो कठिनाइयाँ आवें उनका मुकाबला किया जाय । परंतु मेरे वर्तमान प्रयोजनके लिये यह प्रारंभिक-बिन्दु पर्याप्त है । हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वेदमें हमें 'ऋत्तं ज्योति:', 'हिरण्यं ज्योति:', 'सत्य प्रकाश'; 'सुनहला प्रकाश' ये मुहाविरे मिलते हैं जो हमारे हाथमें एक और सूत्र पकड़ाते हैं । अब सौर प्रकाशके ये तीन विशेषण, आर्य, ॠत, हिरण्य, मेरी रायमें परस्पर एक दूसरेके अर्थ के द्योतक हैं और लगभग समानार्थक हैं । सूर्य सत्यका देवता है, इसलिये इसका प्रकाश 'ॠतं ज्योति:' है, यह सत्यका प्रकाश वह है जिसे आर्य, वह देव हो या मनुष्य, धारण करता है और जिससे उसका आर्यत्व २९६ बनता है, फिर 'सूर्य'के लिये 'सुनहला' यह विशेषण सतत रूपसे प्रयुक्त हुआ है और 'सोना' वेदमें संभवत: सत्यके सारका प्रतीक है, क्योंकि सत्यका सार है प्रकाश, यह वह सुनहरा ऐश्वर्य है जो सूर्यमें और 'स्व:' के जलोंमें ( अप्सु सूर्ये ) पाया गया है,--इसलिये हम 'हिरण्यं ज्योति:' यह विशेषण पाते है । यह सुनहला या चमकीला प्रकाश सत्यका रंग, 'वर्ण' है; साथ ही यह उन विचारोंका भी रंग है जो विचार उस प्रकाशसे परिपूर्ण हैं जिसे आर्योंने जीता था, उन गौओंका जो रंगमें चमकीली, शुत्र्क, श्वेत हैं, वैसी जैसा कि प्रकाशका रंग होता है; जब कि दस्यु, क्योंकि वह अंधकारकी एक शक्ति है, रंगमें काला है । मेरी सम्मतिमें सत्यके प्रकाशका, आर्यज्योति का, चमकीलापन ही आर्यवर्ण है अर्थात् उन आर्योंका वर्ण जो 'ज्योतिरग्राः' हैं; अज्ञानकी रात्रिका कालापन पणियोंका रंग है, दासवर्ण । इस प्रकार प्रायः 'वर्ण'का अर्थ होगा 'स्वभाव' अथवा वे सब जो उस विशेष स्वभाववाले हैं, क्योंकि रंग स्वभावका द्योतक है; और यह बात कि यह विचार प्राचीन आर्योंके अंदर एक प्रचलित विचार था मुझे इससे पुष्ट होती प्रतीत होती है कि बादके कालमें भिन्न-भिन्न रंग-सफेद, लाल, पीला, काला--चार जातियों ( वर्णों ) में भेद करनेके लिये .व्यवहृत हुए है ।
ऋ. 5. 34 का संदर्भ निम्न प्रकार है-
''वह ( इन्द्र ) पाँचके साथ और दसके साथ आरोहण करनेकी इच्छा नहीं करता; वह उसके साथ संयुक्त नहीं होता जो सोमकी हवि नहीं देता, चाहे वह वृद्धिको ही क्यों न प्राप्त हो रहा हो; वह उसे पराजित कर देता है या अपनी वेगयुक्त गतिसे उसका वध कर देता है, वह देवत्वके अभिलाषी ( देवयुः ) को उसके सुखभोगके लिये गौओंसे परिपूर्ण बाड़ा देता है । '' (मंत्र 5 )
''युद्ध-संघट्टमें ( शत्रुका ) विदारण करनेवाला, चक्र ( या पहिये ) को दृढ़तासे थामनेवाला, जो सोमरस अर्पित नहीं करता उससे पराङमुख पर सोमरस अर्पित करनेवालेको बढ़ानेवाला वह इन्द्र बड़ा भीषण है और सबका दमन करनेवाला है; वह 'आर्य' इन्द्र 'दास' को पूर्णतया अपने वशमें कर लेता है । '' ( मंत्र 6 )
''पणिके इस सुखभोगको उत्सारित करता हुआ, उसका अपहरण करता हुआ बह ( इन्द्र ) आता है और वह देनेवालेको ( दाशुषे ) उसके सुखके लिये 'सूनरं वसु' बाँटता है अर्थात् वह दौलत बांटता है जो वीर-शक्तियोंसे ( शब्दार्थतः, मनुष्योंसे ) समृद्ध है ( यहाँ 'सूनरम्' का अर्थ मैंने 'वीर-शक्तियोंसे समद्ध' किया, क्योंकि 'वीर' और 'नृ' बहुधा पर्यायरूपमें प्रयुक्त होते हैं) । २९७ वह मनुष्य जो इन्द्रके बलको ॠद्ध करता है एक दुर्गम यात्रामें अनेकरूपसे रुकावटें पाता है।" (1दुर्गे चन घ्रियते आ पुरु) (मंत्र 7 ) ।
''जब मघवा (इन्द्र) ने चमकीली गौओंके अंदर उन दो (जनों) को जान लिया जो भरपूर दौलतवाले (सुधनौ) और सब बलोंसे युक्त (विश्वशर्धसौ ) हैं, तब वह ज्ञानमें बढ़ता हुआ एक तीसरे (जन ) को अपना सहायक बनाता है और तेजीसे गति करता हुआ अपने योद्धाओंकी सहायतासे गौओंके समुदाय को (गव्यन्) ऊपरकी तरफ खोल देता है ।'' (मंत्र 8) 2
और इस सूक्तकी अंतिम ऋचा आर्य (चाहे वह देव हो या मनुष्य) के विषयमें यह वर्णन करती है कि वह सर्वोच्च ज्ञानदर्शन पर पहुंच जाता है (उपमां केतुम् अर्य: ), जल अपने संगमोंमें उसे पालित करते हैं और उसके अन्दर बलवती तथा 'जाज्वल्यमान संग्राम-शक्ति (क्षत्रम् अमवत् त्येषम् ) रहती है3।
जितना कुछ इन प्रतीकोंके बारेमें हम पहलेसे ही जानते हैं उतनेसे हम इस सूक्तका आन्तरिक आशय सुगमतासे समझ सकते हैं । इन्द्र, जो दिव्य मनः-शक्ति है, अज्ञानकी शक्तियोंके पाससे उनकी छिपाकर रखी हुई दौलत ले लेता है और जब वे अज्ञान-शक्तियाँ प्रचुर और पुष्टियुक्त होती हैं तब भी वह उनसे संबंध स्थापित करनेको तैयार नहीं होता, वह प्रकाशमयी उषाकी बन्द पड़ी गौओंको उस यज्ञ करनेवाले को दे देता है जो देवत्वोंका अभिलाषी है । वह (इन्द्र ) स्वयं आर्य है जो अज्ञानके जीवनको पूर्ण तौरसे _____________ 1. ॠषि देवोंसे सदा यह प्रार्थना करते हैं कि वे 'सर्वोच्च सुख' की ओर उनका मार्ग बना देवें जो मार्ग सुगम और अकण्टक, 'सुग' हो; 'दुर्ग' इस सुगमका उलटा है, यह वह मार्ग है जो अनेकविध (पुरु) आपत्तियों और कष्टों व कठिनाइयोंसे मरा पढ़ा है । 2. न पञ्जभिर्दशभिर्वष्टद्यारभं नासुन्वता सचते पुष्यता चन । जिनाति वेदमुया हन्ति वा धुनिरा देवयुं भजति गोमति वजे ।।5।। वित्यक्षण: समृतौ चक्रमासजोऽसुन्वतो विषुण: सुन्वतो वृधः । इन्द्रो विश्वस्य दमिता विभीषणो यथावशं नयति दासमार्य ।।6।। समीं पणेरजति भोजन मुषे वि दाशुषे भजति सूनरं वसु । दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो यो अस्य तविषीमचुक्रुधत् ।।7।। . सं यज्जनौ सुधनौ विश्वशर्धसाववेदिन्द्रो मधवा गोषु शुभ्रिषु । युजं ह्य१न्यमकृत प्रवेपन्युदीं गव्यं सृजते सत्वभिर्धुनि: ।।8|। (ऋ. 534 ) 3. सहस्रसामाग्निवेशिं' गृणीषे शत्रिमग्न उपमां केतुमर्य: । तस्मा आपः संयतः पीपयन्ततस्मिन् क्षत्रममवत्तेवेषमस्तु ||9|| (ॠ.5.34) २९८ उच्चतर जीवनके वशमें कर देता है, जिससे यह अज्ञानका जीवन उस सारी दौलतको जो इसके कब्जेमें थी इस उच्चतर जीवनके हाथमें सौंप देता है । देवोंको निरूपित करनेके लिये 'आर्य' तथा 'अर्य' शब्दोंका प्रयोग, न केवल यहीं पर बल्कि अन्य संदर्भोंमें भी, अपने-आपमें यह दर्शानेकी प्रवृत्ति रखता है कि आर्य तथा दस्युका विरोध एक राष्ट्रीय या जातिगत अथवा केवलमात्र मानवीय भेद नहीं है, बल्कि इसका एक गभीरतर अर्थ है ।
योद्धा यहां निश्चित ही सात अंगिरस् हैं, क्योंकि वे ही, न कि 'मरुत्' जैसा कि सायणने 'सत्वभि:'का अर्थ लिया है, गौओंकी मुक्तिमें इन्द्रके सहायक होते हैं । पर जिनको इन्द्र चमकीली गौओंके अन्दर प्रविष्ट होकर अर्थात् विचारके पुञ्जीभूत प्रकाशोंको अधिगत करके पाता है या जानता है, वे तीन जन यहाँ कौन हैं इसका निश्चय कर सकना अधिक कठिन है । बहुत अधिक संभव यह है कि वे तीन हैं जिनके द्वारा अंगिरस्-ज्ञानकी सात किरणें बढ़कर दस हो जाती हैं, जिससे अगिरस् सफलतापूर्वक दस महीनोंको पार कर लेते हैं और सूर्य तथा गौओंको मुक्त करा लेते हैं; क्योंकि यहाँ भी दो (जनों )को पा लेने या जान लेने और तीसरे (जन )की मदद पा लेनेके बाद ही इन्द्र पणियोंके पाससे गौओंको छुड़ा पाता है । इन तीन जनोंका सम्बन्ध प्रकाशको नेता बनानेवाले (ज्योतिरग्रा: ) तीन आर्यजनों (7.33.7 )के प्रतीकवादके साथ तथा 'स्वः'के तीन प्रकाशमान लोकोंके प्रतीकवादके साथ भी जुड़ सकता है, क्योंकि सर्वोच्च ज्ञान-दर्शन (उपमा केतु: )की उपलब्धि उनकी क्रियाका अन्तिम परिणाम है और यह सर्वोच्च ज्ञान वह है जो 'स्वः'के दर्शनसे युक्त है तथा अपने तीन प्रकाशमान लोकों (रोचनानि)में स्थित है जैसा कि हम 2.3.14 में पाते हैं, स्वदृशं केतुं दिवो रोचनस्थामुषर्बुधम्, ''वह ज्ञान-दर्शन जो 'स्यः'को देखता है, जो प्रकाशमान लोकोंमें स्थित है, जो उषामें जागृत होता है ।"
ऋ. 3.34में विश्वामित्रने 'आर्यवर्ण' यह पदप्रयोग किया है, और साथ ही वहाँ उसने इसके अध्यात्मपरक अर्थ की कुञ्जी भी हमें दे दी है । इस सूक्तकी (8 से 10 तक ) तीन ऋचाएं निम्न प्रकारसे है-
सत्रासाहं वरेण्यं सहोदां ससवांसं स्वरपश्च देवी: । ससान य: पृथिवीं द्यामुतेमामिन्द्रं मदन्त्यनु धीरणास: ।।8|।
'' (वे स्तुति करते हैं) अतिशय वांछनीय, सदा अभिभव करनेवाले, बलके देनेवाले, 'स्व:' तथा दिव्य जलोंको जीतकर अधिगत करनेवाले (इन्द्र) २९९ की; विचारक लोग उस इन्द्रके आनन्दमें आनन्दित होते हैं, जो पृथिवी तथा द्यौको अधिकृत कर लेनेवाला है ।।8।।"
ससानानात्यां उत सूर्यं ससानेदरः ससान पुरुभोजसं गाम् । हिरण्ययमुत भोगं ससान हत्वी दस्यून् प्रायं वर्णमावत् ।।9।।
' 'इन्द्र घोड़ोंको अधिगत कर. लेता है, सूर्यको अधिगत कर लेता है, अनेक सुख-भोगोंवाली गौको अधिगत कर लेता है; वह सुनहले सुख-भोगों-को जीत लेता है, दस्युओंका वध करके वह 'आर्य वर्ण'की पालना करता है ( या रक्षा करता है ) ।। 9 ।। ''
इन्द्र ओषधीरसनोदहानि वनस्पतीँ रसनोदन्तरिक्षम् । बिभेद वलं नुनुदे विवाचोऽथाभचद् दमिताभिक्रतूनाम् ।।10।।
''इन्द्र ओषधियोंको और दिनोंको जीत लेता है, वनस्पतियों और अन्त-रिक्षको जीत लेता है, वह 'बल'का भेदन कर डालता है और वाणियोंके वक्ताको आगेकी तरफ प्रेरणा दे देता है, इस प्रकार वह उनका दमन-कर्ता बन जाता है जो उसके विरुद्ध कर्म करनेका संकल्प रखनेवाले हैं ( अभि-ॠनाम् ) ।।10।। ''
यहाँ हम देखते हैं कि .उस सारी दौलतके प्रतीकमय तत्त्व आ गये हैं जिसे इन्द्रने आर्यके लिये जीता है और उस दौलतमें सम्मिलित हैं सूर्य, दिन,' पृथिवी, द्युलोक, अन्तरिक्षलोक, घोड़े, पार्थिव उद्धिद्, ओषधियाँ और वनस्पतियाँ ( 'वनस्पतीन्' यहाँ द्वचर्थक है, वनके अधिपति और सुखभोगके अधिपति ); और 'वल' तथा उसके सहायक दस्युओंके विरोधी रूपमें यहां हम 'आर्यवर्ण'को .पाते हैं ।
परन्तु इससे पूर्ववर्ती ऋचाओंमें ( 4-6में ) पहले ही 'वर्ण ' शब्द इस अर्थमें आ चुका है कि यह आर्यके विचारोंका रंग है, उन विचारोंका जो सच्चे तथा प्रकाशसे परिपूर्ण हैं । 'स्वःके विजेता इन्द्रने, दिनोंको पैदा करके, इच्छुकों ( अंगिरसों ) को साथ लेकर ( दस्युओंकी ) इन सेनाओं पर आक्रमण किया और इन्हें जीत लिया; उसने मनुष्यके लियें दिनोंके ज्ञान-दर्शनको ( केतुम् अह्नां ) प्रकाशित कर दिया, उसने विशाल आनन्दके लिये प्रकाशको पा लिया ( ऋचा 4 ) । उसने अपने उपासकके लिये इन विचारोंको ज्ञान-चेतनासे युक्त किया, जागृत किया, उसने इन ( विचारों ) के चमकीले 'वर्ण'- को आगे ( दस्युओंकी बाधासे परे ) पहुंचा दिया ( अचेतयद् धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ) ( ऋचा 5 ) । वे महान् इन्द्रके अनेक महान् और पूर्ण कर्मोंको प्रवर्तित करते हैं ( या उनकी स्तुति करते है ); अपने बलसे, अपनी अभिभूत कर देनेवाली शक्तिमें भरकर, अपनी ज्ञान-की-क्रियाओं ३०० द्वारा ( मायाभि: ) वह कुटिल दस्युओंको पीस डालता है (ऋचा 6 ) ।'1
यहाँ हम 'केतुम् अह्नाम्' अर्थात् 'दिनोंका ज्ञान-दर्शन' इस वैदिक मुहावरे-को पाते हैं जिससे सत्यके सूर्यका वह प्रकाश अभिप्रेत है जो विशाल दिव्य आनन्द प्राप्त कराता है, क्योंकि 'दिन वे हैं जो मनुष्यके लिये इन्द्रसे की गयी 'स्व:'की विजय द्वारा उस समय उत्पन्न किये गये हैं जब, जैसा कि हम जानते हैं, इन्द्रने पहले उत्पन्न अंगिरसोंकी सहायतासे पणि-सेनाओंका विनाश कर लिया तथा सूर्य और प्रकाशमय गौओंका उदय हो चुका । यह सब कुछ देव मनुष्यके लिये और मनुष्यकी शक्तियोंका रूप धारण करके करते है, न कि स्वयं अपने लिये क्योंकि वे तो पहलेसे ही इन ऐश्वर्योंसे युक्त हैं; -मनुष्यके लिये वह इन्द्र 'नृ' अर्थात् दिव्य मनुष्य या पुरुष बनकर उस पौरुषके अनेक बलोंको धारण करता है ( नृवद्.... नर्या पुरूणि-मंत्र 5 ), मनुष्यको वह इसके लिये. जागृत करता है कि वह इन विचारोंका ज्ञान प्राप्त करे, जिन विचारोंको यहाँ प्रतीकरूपमें पणियोंके पाससे छुड़ायी गयी चमक-दार गौएं कहा गया है; और इन विचारोंका चमकीला रंग ( शुक्रं वर्णमासाम् ) स्पष्टत: वही है जो 'शुक्र' या ' श्वेत' आर्य-रंग है, जिसका नौवीं ऋचामें उल्लेख हुआ है । इन्द्र इन विचारोंके 'रंग'को आगे ले जाकर या वृद्धिंगत करके पणियोंके विरोधसे परे कर देता है ( प्र वर्णमतिरच्छुक्रम् ), ऐसा करके वह दस्युओंको मार डालता है और आर्यके 'रंग'की रक्षा करता है या पालना करता है और वृद्धि करता है, ( हत्वी दस्यून् प्रायं वर्णमावत् ।9। ) । इसके अतिरिक्त एक बात यह है कि ये दस्यु कुटिल हैं ( वृजिनान् ), तथा ये जीते जाते हैं इन्द्रके कर्मों या ज्ञानके रूपों द्वारा, उसकी 'मायाओं' द्वारा, जिन मायाओंसे, जैसा कि अन्य कई स्थानों पर कहा मिलता है, वह इन्द्र दस्युओंकी, 'वृत्र 'की या 'वल' की विरोधिनी ' मायाओं'को अभिभूत करता है | ' ॠजु' और 'कुटिल ' ये वेदमें सततरूपसे क्रमश: 'सत्य' और 'अनृत' के पर्यायवाचीके तौर पर आते हैं | इसलिये यह स्पष्ट है की ये 'पानि-दस्यु' _____________ 1. इन्द्र: स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भि: पृतना अभिष्टिः । प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय ।।4।। ( इन्द्रस्तुजो बर्हणा आ विवेश नृवत् दधानो नर्या पुरूणि ) । अचेतयद् धिय इमा जरित्रे प्रेमं वर्णमतिरच्छुक्रमासाम् ।।5।। महो महानि पनयन्त्यस्येन्द्रस्थ कर्म सुकृता पुरूणि । वृजनेन वृजिनान् त्सं पिपेष मायाभिर्दस्थूँरभिभूत्योजा: ।।6।। ( ऋ. 3. 34. 4 6 ) ३०१ अनृत और अज्ञानकी कुटिल शक्तियां हैं जो अपने मिथ्या ज्ञानको, अपने मिथ्या बल, संकल्प और कर्मोंको देवों तथा आर्योके सच्चे ज्ञान, सच्चे बल, सच्चे संकल्प और कर्मोके विरोधमें लगाती हैं । प्रकाशकी विजयका अभिप्राय है इस मिथ्या ज्ञान या दानवीय ज्ञान पर सत्यके दिव्य ज्ञानकी विजय; और उस विजयका मतलब है सूर्यका ऊर्ध्यारोहण, दिनोंका जन्म, उषाका उदय, प्रकाशमान किरणों रूपी गौओंकी मुक्ति और उन गौओंका प्रकाशके लोकमें चढ़ना ।
ये गौएं सत्यके विचार हैं, यह हमें सोम देवताके एक सूक्त 9.111 मै पर्याप्त स्पष्ट रूपमें बता दिया गया है ।
'इस जगमगानेवाले प्रकाशसे अपनेको पवित्र करता हुआ अपने स्वयं जुते घोड़ों द्वारा वह सब विद्वेषिणी शक्तियोंको चीरकर पार निकल जाता है, मानो उसके वे घोड़े सूर्यके स्वयं जुते घोड़े हों । निचोड़े हुए सोमकी धारारूप, अपनेको पवित्र करता हुआ, आरोचमान, जगमगानेवाला वह चभक उठता है, जब कि वह ऋक्के वक्ताओंके साथ सात-मुखों-वाले ऋक्के वक्ताओं ( अंगिरस्-शक्तियों ) के साथ, ( वस्तुओंके ) सब रूपोंको चारों ओरसे घेरता है ।' ( ऋचा 1 )
'तू, हे सोम ! पणियोंकी वह दौलत पा लेता है; तू अपने आपको 'माताओं'के द्वारा (अर्थात् पणियोंकी गौओंके द्वारा, क्योंकि दूसरे सूक्तोंमें पणियोंकी गौओंको 'माता' यह नाम कई जगह दिया गया है ) अपने स्वकीय घर (स्व: ) में चमका लेता है, 'सत्य के विचारों'के द्वारा अपने घरमें (चमका लेता है ), सं मातृभिर्मर्जयसि, स्व आ दमे, ॠतस्य धीतिभिर्दमे । मानो उच्चतर लोकका (परायत: ) 'साम' ( समतापूर्ण निष्पत्ति या सिद्धि, [समाने ऊर्वे] समतल विस्तारमें ) वह (स्व: ) है जहाँ (सत्यके ) विचार आनन्द लेते हैं । त्रिगुण लोकमें रहनेवाली (या तीन मूलतत्त्वोंवाली ) उन आरोचमान (गौओं ) द्वारा वह ( ज्ञानकी ) विशाल अभिव्यक्तिको धारण करता है, वह जगमगाता हुआ विशाल अभिव्यक्तियोंको धारण करता है ।' (ऋचा 2 ) 1 _______________ 1. अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषांसि तरति स्ययुग्वभि: । सूरो न स्वयुग्वभि: । धारा सुतस्य रोचते पुनानो अरुषो हरि: । विश्वा यदृपा परियात्यृक्वभि: सप्तास्येभिॠॅक्वभि: ।।1।। त्वं त्यत् पणीना विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम ३०२ यहां हम देखते हैं कि पणियोंकी गौएं थे विचार हैं जो सत्यको प्राप्त कर लेते हैं । पणियोंकी जिन गौओंके विषयमें यहाँ यह कहा गया है कि इनके द्वारा सोम अपने निज घरमें [ अर्थात् उस घरमें जो 'अग्नि' तथा अन्य देवोंका घर है और जिस घरसे हम इस रूपमें परिचित हैं कि वह 'स्यः'का बृहत् सत्य (ॠत बृहत्) है ] साफ और चमकीला हो जाता है और यह कहा गया है कि ये जगमगानेवाली गौएं अपने अन्दर सर्वोच्च लोकके त्रिगुण स्वभावको रखती हैं (त्रिधातुभि: अरुषीभि: ) और जिनके द्वारा सोम उस सत्यके जन्मको या उसकी विशाल अभिव्यक्ति'को धारण करता है, उन गौओंसे वे विचार अभिप्रेत हैं जो सत्यको प्राप्त कर लेते हैं । यह 'स्व:', जो उन तीन प्रकाशमान लोकोंवाला है जिनकी विशालतामें ''त्रिधातु''की समतापूर्ण निष्पन्नता रहती है ('त्रिधातु' यह मुहावरा प्रायः उस त्रिविध परम तत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है जिससे त्रिगुणित सर्वोच्च लोक, तिस्र: परावतः बना है), अन्यत्र इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह विशाल तथा भयरहित चरागाह है जिसमें गौएं इच्छानुसार विचरण करती हैं और आनंद लेती हैं (रण्यंति ) और यहाँ भी यह (स्व: ) वह प्रदेश है जहाँ सत्यके विचार आनन्द लेते हैं (यत्र रणन्ति धीतय: ) । और अगली (तीसरी ) ॠचामें यह कहा गया है कि 'सोम'का दिव्य रथ ज्ञानको प्राप्त करता हुआ, प्रकृष्ट (परम) दिशाका अनुसरण करता है और अन्तर्दर्शन (Vision ) से युक्त होकर किरणों द्वारा आगे बढ़नेका यत्न करता है, (पूर्वामनु प्रदिशं याति चेकितत् सं रश्मिभिर्यतते दर्शतो रथो दैव्यो दर्शतो रथ: ) । यह परम् दिशा स्पष्ट ही दिव्य या वृहत् सत्य की दिशा है; ये किरणें स्पष्टत: दिव्य उषाकी या सत्यके सुर्यकी किरणें हैं, वे गौएं हैं जिन्हें पणियोंने छिपा रखा है, ये हैं प्रकाशमान विचार, चमकीले रंगकी 'धियः', 'ॠतस्य धीतयः' ।
वेदकी सारी अन्त:साक्षी जहाँ कहीं भी पणियों, गौओं, अंगिरसोंका उल्लेख हुआ है, नियत रूपसे इसी परिणामको संपुष्ट करता है, स्थापित ______________ ॠतस्य धीतिभिर्दमे । परावतो न साम तद् यात्रा रणन्ति धीतयः । त्रिधातुभिरख्षीभिर्वयो वषे रोचमानो वयो वयो ।।2|। (ॠ. 9.111 ) ।. वय:, तुलना करो 6.21.2-3 से; जहां यह कहा गया है कि जो इन्द्र ज्ञानी है और जो हमारे शब्दों (वाणियों) को वहन करता है और उन शब्दों द्वारा यशमें प्रवृद्ध होता है (इन्द्रं यो विदानो गिर्वाहसं गीर्मिर्यज़वद्धम्), वह इन्द्र उस अंधकारको जो ज्ञानसे शून्य फैला पड़ा था सूर्य के द्वारा उस रूपमें परिणत कर देता है जो ज्ञानकी अभिव्यक्तिसे मुक्त है, (स इत्तमोऽयुनं ततन्त्रत् सूर्येण वयुनवच्चकार ) । ३०३ करती है । पणि हैं सत्यके विचारोंके अवरोधक, ज्ञान-रहित अंधकार (तमो-ऽवयुनम् ) में निवास करनेवाले, जिस अंधकारको इन्द्र और अगिरस् दिव्य शब्दके द्वारा, सूर्यके द्वारा हटाकर उसके स्थानमें प्रकाशको ले आते हैं, ताकि जहां पहले अंधकार था वहाँ सत्यका विस्तार अभिव्यक्त हो जाय । इन्द्र पणियोंके साथ भौतिक आयुधोंसे नहीं बल्कि शब्दोंसे युद्ध करता है ( देखो ऋ. 6.39.2 ); पणीँर्वचोभि: अभि योधदिन्द्र: । जिस सूक्तमें यह वाक्यांश आया है उस सूक्त ( 6.39 ) का बिना कोई टिप्पणी किये केवल अनुवाद कर देना पर्याप्त होगा, जिससे इस प्रतीकवादका स्वरूप अंतिम रूपसे प्रकट हो जाय ।
'उस दिव्य और आनंदमग्न क्रान्तदर्शी ( सोम ) की, उसकी जो यज्ञका वाहक है, उसकी जो प्रकाशमान विचारवाला मधुमय वक्ता है; प्रेरणाओंको, हे देव ! हमसे, शब्दके वक्तासे संयुक्त कर, उन प्रेरणाओंको जिनके आगे-आगे प्रकाशकी गौएं हैं ( इषो गोअग्रा: ) ।' ( मंत्र 1 )
'यह था जिसने चमकीली ( गौओं, 'उस्त्रा:' ) को, जो पहाड़ीके चारों ओर थीं चाहा, जो सत्यको जीतनेवाला, सत्यके विचारोंसे अपने रथको जोते हुए था ( ऋतधीतिभिॠॅतयुग् युजान: ) । ( तब ) इन्द्रने ' वल' के अभग्न पहाड़ी-सम प्रदेश ( सानु ) को तोड़ा, शब्दोंके द्वारा उसने पणियोंके साथ युद्ध किया ।' ( मंत्र 2 )
'यह ( सोम ) था जिसने, चन्द्र-शक्ति ( इन्दु ) के रूपमें, दिन-रात लगकर और वर्षोंमें, प्रकाशरहित रात्रियोंको चमकाया, और वे ( रात्रियां ) दिनोके साक्षाद् दर्शन ( Vision, केतु ) को धारण करने लग पडी, उसने उषाओंको रचा जो उषाएं जन्ममें पवित्र थीं ।' ( मंत्र 3 ) ।
'यह था जिसने आरोचमान होकर प्रकाशरहितोंको प्रकाशसे परिपूर्ण किया; उसने सत्यके द्वारा अनेकों ( उषाओं ) को चमकाया, वह सत्यसे जोते हुए घोड़ोंके साथ, 'स्व:'को पा लेनेवाले पहियेके साथ चल पड़ा, कर्मोंके कर्त्ताको ( ऐश्वर्यसे ) परितृप्त करता हुआ ( चर्षणिप्रा: ) ।' ( मंत्र 4 ) 1 _____________ 1. मन्द्रस्य कवेर्दिव्यस्य वह्नेर्विप्रमन्मनो वचनस्य मध्वः। अपा नस्सस्य सचनस्य देवेषो युवस्व गृणते गोअग्राः ।।1।। अयमुशान: पर्यद्रिमुस्त्रा ऋतधीतिभिॠॅतयुग्युजान: । रुजदरुग्णं वि वलस्य सानुं पर्णीर्वचोभिरभि थोधदिन्द्रः ।|2।। अयं द्योतयदद्युतो व्य१ क्तून् दोषा वस्तो: शरद इन्दुरिन्द्र । इमं केतुमदधुर्नु चिदह्नां शुचिजन्मन उषसश्चकार ।।3।। अयं रोचयदरुचो रुचानो३ऽयं वासयद् व्यृ१तेन पूर्वी : । अयमीयत ॠतयुग्भिरश्वै: स्वर्विदा नाभिना चर्षणिप्रा: ।।4।। ३०४ सर्वत्र विचार, सत्य व शब्द ही पणियोंकी गौओंके साथ संबद्ध पाया जाता है; दिव्य-मनःशक्ति-रूप इन्द्रके शब्दों द्वारा वे जीते जाते हैं जो गौओं-को अवरुद्ध करते हैं, जो अंधकारपूर्ण था वह प्रकाशमय हो जाता है; सत्यसे जोते गये घोड़ोंसे खिंचनेवाला रथ (ज्ञानके द्वारा, स्वर्विदा नाभिना ) सत्ताकी, चेतना और आनंदकी प्रकाशमय विस्तीर्णताको पा लेता है जो अबतक हमारी दृष्टिसे ओझल है । 'ब्रह्य' (विचार ) के द्वारा इन्द्र 'वल'का भेदन करता है, अंधकारको ओझल करता है, 'स्वः'को सुदृश्य करता है ।
उद् गा आजद् अभिनद् ब्रह्यणा वलम् । अगूहत्तभो व्यचक्षयत् स्व: ।। (ऋ. 2.24.3 )
सारा ऋग्वेद प्रकाशकी शक्तियोंका एक विजयगीत है और गीत है प्रकाशकी शक्तियोंके ऊर्ध्वारोहणका, जो आरोहण सत्यके बल तथा दर्शनके द्वारा होता है और जो इस उद्देश्यसे होता है कि सत्यके स्रोत व घरमें, जहाँ कि सत्य अनृतके आक्रमणसे स्वतंत्र रहता है, पहुँचकर उस सत्यको अधिगत कर लिया जाय । 'सत्यके द्वारा गौएं (प्रकाशमान विचार ) सत्य-में प्रविष्ट होती हैं, सत्यकी तरफ जानेका यत्न करता हुआ व्यक्ति सत्यको जीतता है; सत्यका अग्रगामी बल प्रकाशकी गौओंको पाना चाहता है और (शत्रुको ) बीचमेंसे चीरता हुआ चला जाता है; सत्यके लिये दो विस्तृत लोक (द्यौ व पृथिवी ) बहुल, बहुविध और गभीर हो जाते हैं, सत्यके लिये दो परम माताएं अपना दूध देती हैं ।'
ऋतेन गाय ॠतमा विवेशुः । ॠतं येमाम ऋतमिद् वनोति, ऋतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्यु: । ऋताय पृथ्यी बहुले गभीरे,ॠताय धेनू परमे दुहाते ।। ( ऋ. 4.23. 9-10 ) ३०५
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